स्वराजवादी आंदोलन (Swarajist Movement)

स्वराजवादी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो 1920 के दशक में महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन के अस्थायी स्थगन के बाद शुरू हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व मुख्य रूप से चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने किया, जिनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष को जारी रखने के लिए वैधानिक (संवैधानिक) तरीकों का सहारा लेना चाहिए।

पृष्ठभूमि

1920 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता को संगठित करना और स्वराज (स्व-शासन) प्राप्त करना था। हालांकि, चौरी चौरा की घटना के बाद, जिसमें हिंसा हुई थी, गांधीजी ने 1922 में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया। इस फैसले से कांग्रेस के भीतर एक वर्ग निराश हो गया, जिन्हें लगा कि संघर्ष को जारी रखना चाहिए।

स्वराजवादी पार्टी का गठन

महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद, कांग्रेस के भीतर दो विचारधाराएँ उभरीं:

  1. नो-चेंजर (No-Changers): इस समूह का मानना था कि कांग्रेस को असहयोग आंदोलन के सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए और सरकारी संस्थाओं में भाग नहीं लेना चाहिए। यह गुट गांधीजी के साथ था और वे अहिंसक संघर्ष और सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते थे।
  2. प्रो-चेंजर (Pro-Changers): इस गुट का नेतृत्व चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरू और विट्ठलभाई पटेल ने किया। उनका मानना था कि संघर्ष को संवैधानिक संस्थाओं (काउंसिल) के भीतर से भी जारी रखना चाहिए और ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध वहीं से करना चाहिए। इन नेताओं ने स्वराजवादी पार्टी (Swaraj Party) का गठन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य सरकारी काउंसिलों में प्रवेश कर वहां से ब्रिटिश नीतियों का विरोध करना था।

स्वराजवादियों का उद्देश्य

स्वराजवादी पार्टी का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को ब्रिटिश शासन के तहत सीमित स्वराज (स्व-शासन) दिलाने का था। उनका मानना था कि काउंसिल में शामिल होकर, वे सरकार की नीतियों को बाधित कर सकते हैं और भारतीय जनता के हितों की रक्षा कर सकते हैं। स्वराजवादियों ने निम्नलिखित लक्ष्यों को सामने रखा:

  1. ब्रिटिश नीतियों का विरोध: स्वराजवादी काउंसिलों में शामिल होकर हर उस नीति का विरोध करना चाहते थे, जो भारतीयों के हितों के खिलाफ हो।
  2. स्वराज की मांग: वे ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालना चाहते थे कि भारत को स्वराज का अधिकार दिया जाए।
  3. जनहित के मुद्दों को उठाना: काउंसिल में भारतीय जनता के अधिकारों और जरूरतों को उठाना और उन पर सरकार से जवाबदेही मांगना।

चुनाव और सफलता

1923 के काउंसिल चुनावों में स्वराजवादी पार्टी ने हिस्सा लिया और बड़ी सफलता हासिल की। पार्टी ने केंद्रीय विधानसभा और प्रांतीय विधानसभाओं में महत्वपूर्ण सीटें जीतीं। इन काउंसिलों में स्वराजवादियों ने ब्रिटिश नीतियों का पुरजोर विरोध किया और कई बार सरकार को अपने प्रस्तावों को पारित करने से रोका। स्वराजवादियों की यह रणनीति ब्रिटिश सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई थी।

असफलता और अंत

हालांकि स्वराजवादी आंदोलन ने शुरुआती सफलता हासिल की, लेकिन पार्टी के भीतर मतभेद और गांधीजी की वापसी से पार्टी कमजोर हो गई। 1925 में चित्तरंजन दास के निधन के बाद, स्वराजवादी पार्टी का प्रभाव और घट गया। धीरे-धीरे, स्वराजवादी और नो-चेंजर गुट एक बार फिर से एकजुट हो गए और 1930 में गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ।

निष्कर्ष

स्वराजवादी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने यह दिखाया कि स्वतंत्रता की लड़ाई सिर्फ सड़कों पर ही नहीं, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के भीतर से भी लड़ी जा सकती है। चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरू और उनके साथियों का यह प्रयास भारतीयों को जागरूक करने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संगठित करने में सहायक रहा।

स्वराजवादी आंदोलन से सम्बंधित परीक्षापयोगी प्रश्न उत्तर

प्रश्नउत्तर
दिसंबर 1922 में अखिल भारतीय कांग्रेस का सत्र कहाँ आयोजित हुआ?गया में।
गया सत्र की अध्यक्षता किसने की?चित्तरंजन दास ने।
कांग्रेस में 1922 के सत्र के दौरान कौन-कौन से दो गुट बने?एक विधान परिषद में प्रवेश का समर्थन करने वाला गुट और दूसरा गांधीवादी मार्ग पर चलने वाला गुट।
विधान परिषद में प्रवेश का समर्थन करने वाले गुट के नेता कौन थे?सीआर दास, मोतीलाल नेहरू और अजमल खान।
गांधीवादी मार्ग का समर्थन करने वाले ‘नो-चेंजर्स’ के नेता कौन थे?वल्लभभाई पटेल, सी राजगोपालाचारी और एमए अंसारी।
स्वराज दल का गठन कब और किसने किया?1923 में मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास ने।
स्वराज दल के पहले अध्यक्ष कौन थे?नारायण प्रसाद।
स्वराज दल के पहले सचिव कौन थे?अब्दुल बारी।
बिहार में स्वराज दल की शाखा कब बनाई गई?फरवरी 1923 में।
बिहार में स्वराज दल के नेता कौन थे?श्रीकृष्ण सिंह।
क्या बिहार में स्वराज दल प्रभावी था?नहीं, बिहार में यह बहुत प्रभावी नहीं था।
स्वराज दल का मुख्य उद्देश्य क्या था?विधान परिषदों के अंदर जाकर ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध करना।
‘नो-चेंजर्स’ किस सिद्धांत का पालन कर रहे थे?गांधीजी के असहयोग और सत्याग्रह के मार्ग का।
स्वराज दल की नीति क्या थी?संविधान के भीतर रहते हुए ब्रिटिश नीतियों का विरोध करना और सुधारों की मांग करना।

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